Friday, June 29, 2007

मितवा,


प्यारी है यह जगह, बहुत ही प्यारी! तुम्हारे हारुकी मुराकामी की उस उपन्यास का नायक इसे देखता तो शायद कहता, "इतनी प्यारी, कि इस धरती पर पानी की जितनी बूँदें हैं उतनी बार इस जगह पे आऊँ तो भी मन नहीं भरेगा. It's so beautiful, my heart will ache with the realization of its beauty, and eventually break . - Break into ten thousand songs and a million kisses to shower over this place."
बताऊँ क्यों? यहाँ पर हमारी बचपन की कहानियों वाला enchanted forest है! पहली बार देखा तो विश्वास ही नहीं हुआ... नाज़ुक टहनियोंवाले पौधे ऐसे बिखरे थे जैसे चित्रकर्ताकी कल्पना में से उतरे चुडैल के उलझे बाल. इत्ते-इत्ते छोटे-से - बिल्ली की आँख जितने पत्ते. उनका लुभावना महीन हरा रंग. तोते के छोटे बच्चे के शरीर पे निकला हुआ पहला हरा पर ही उतना सुंदर, उतना मल्मल-सा, उतना नया हो सकता है. अभी हाल ही में सुबह घमासान पानी बरसा, और दोपहर में बादल-छलनी से निकले हुएँ कोमल किरणों ने उन्हें छूआ तो वें पत्तें भी फूलों के तरह खिल उठें. सावन-धुले पत्तें!
कहीं पे ऐसी हरियाली और कहीं पे शापित यक्षगणों की तरह सूखी ड़ालियोंवाले रूखे अस्थिपंजर. उन्हीं के बीचोंबीच एक सहमी हुई पगडंडी देखी, तो तुम याद आये, बहुत याद आये...! तुमने एक वाटिका का चित्र बनाया था एक दिन. चाव से सजाया हुआ उपवन, तरह-तरह के पेड़-पौधें, चारों तरफ़ खिले हुएँ फूल, बीचोंबीच एक तालाब, उसके बगल में पुष्करिणी - संगमरमर से बँधी हुई. और ईटों के बने साफ़-सुथरे रास्ते पे तुम्हारी आदतनुमाँ लड़की - शायद राजकुमारी थी, जिसके चेहरे पे एक अजीब उदासी छायी हुई थी. तुमने उस उदासी का कारण तो नहीं बताया - पर बहुत दिनों बाद जब हम एक साथ वो चित्र देख रहे थें तो तुमने कहा - "I like unkempt gardens better."
ऐसा ही है यह मंज़र. कोई सजाया-सँवारा बगीचा नहीं - अपनी ही धुंद में जीने-मरनेवाला छोटासा जंगल है! उन हज़ारों ख्वाहिशों में से यह अकेली मुझे मिली, जिसे ढूँढने में तो दम नहीं निकला..पर जिसे पाते ही साँस थम गई. मिर्ज़ाजी पे वारी जाँवा मितवा- जो कुछ भी कह गएँ हैं, आखिरकर सच ही निकल जाता है .