"कृष्णकली आमी तारेई बोली
आर जा वॅले बलूक अन्य लोक...
कालो? ता शे जतई कालो होक
देखेछी तार कालो हरिण चोख"
--रबीन्द्रनाथ.
अभ्यंगस्नान जानते हो नं मितवा?आज अभि-मनस्नान घटा है. किसके सुखन, किसकी कथा..पर शिवानी के चंद शब्द छल-छल छलकवा गये असुवनधारा.
आजकल पुस्तक पढ़्ती हूँ तो उसके अन्त की प्रतीक्षा रहती है. कुछ पाँच -दस पन्ने पढ़े नहीं कि एकदम अन्त में पहुँचकर पूरी कथा का सार टटोलने लगती हूँ.
हाँ - धीरे धीरे, चाव से कहानी पढ़्ने में कुछ खास रूमानियत ज़रूर है, पर ये कहानियाँ भी कभी कँवार ज़रूरत से ज़्यादा लंबी खिंचती हैं! व्यक्तिरेखाओं के जीवन के मामूली प्रश्न मुझ ही को पीडित करते हैं, और 'आगे क्या हुआ?' की चरम सीमा पे जाकर झाँकने के लिये मजबूर करते हैं.
समय से पहले उसे जान लेने की यह कौनसी विचित्र इच्छा मेरा पीछा करती है? कहीं वें पढ़े-सुने काँच के भविष्यदर्शी गोले, अपनी स्वामिनियों की लंबीलंबी उँगलियाँ उधार ले कर मेरे मन के अगल-बगल तो नहीं मँडरा रहें? या फ़िर तुम्हारेही नगर ने मुझे इस प्रकार प्रभावित कर दिया है?
ना नहीं - बुरा मत मानियो. जो झरना प्राय: उसी शांत नदी से मिलने का आदी हो चुका हो, उसे अचानक किसी जलधि की राह ढूँढने खुद अकेले आगे बढना पडे तो वह ऐसी बेचैनी से भला कैसे बच पायेगा? उसे अपने भविष्य की चिन्ता नहीं, पर सहोदर-स्नेह से उसका साथ निभानेवाली उस पुरानी राह का हर कंकर उसके वर्तमान में एक भँवर खड़ा कर देता है. 'उनके यहाँ सब कुशल तो होगा?'
कभी कभी तो सपने में मिले हुए अशरीर जीव के प्रति ऐसी ही बेचैनी उमड़ आती है! ऐसे में क्या करना चाहिये ? नानीजी से पूछ आऊँ तो कहेंगी 'सर्वेऽपि सुखिन: सन्तु सर्वे सन्तु निरामय:' पर प्रार्थना करने से मन शान्त होने के बजाय श्रान्त होने लगे तो क्या कीजियेगा?
...क्या सोचते हो? घबराने जैसी कोई बात नहीं! मुझ जैसी सयानी क्या ऐसी झुँझलाहट में फँसी रहेगी? ना बीते हुए कल की याद में, ना आनेवाले कल की चाह में - मैं अपनी राह कतई नहीं छोडूँगी, भले ही मुझे अपनी आवाज़ तुम तक पहुँचाने की आस छोडनी पड़े. कल-कल, छल-छल.. पल-पल गूँजती आवाज़... तुम्हारे यहाँ सब कुशल तो है?
आर जा वॅले बलूक अन्य लोक...
कालो? ता शे जतई कालो होक
देखेछी तार कालो हरिण चोख"
--रबीन्द्रनाथ.
अभ्यंगस्नान जानते हो नं मितवा?आज अभि-मनस्नान घटा है. किसके सुखन, किसकी कथा..पर शिवानी के चंद शब्द छल-छल छलकवा गये असुवनधारा.
आजकल पुस्तक पढ़्ती हूँ तो उसके अन्त की प्रतीक्षा रहती है. कुछ पाँच -दस पन्ने पढ़े नहीं कि एकदम अन्त में पहुँचकर पूरी कथा का सार टटोलने लगती हूँ.
हाँ - धीरे धीरे, चाव से कहानी पढ़्ने में कुछ खास रूमानियत ज़रूर है, पर ये कहानियाँ भी कभी कँवार ज़रूरत से ज़्यादा लंबी खिंचती हैं! व्यक्तिरेखाओं के जीवन के मामूली प्रश्न मुझ ही को पीडित करते हैं, और 'आगे क्या हुआ?' की चरम सीमा पे जाकर झाँकने के लिये मजबूर करते हैं.
समय से पहले उसे जान लेने की यह कौनसी विचित्र इच्छा मेरा पीछा करती है? कहीं वें पढ़े-सुने काँच के भविष्यदर्शी गोले, अपनी स्वामिनियों की लंबीलंबी उँगलियाँ उधार ले कर मेरे मन के अगल-बगल तो नहीं मँडरा रहें? या फ़िर तुम्हारेही नगर ने मुझे इस प्रकार प्रभावित कर दिया है?
ना नहीं - बुरा मत मानियो. जो झरना प्राय: उसी शांत नदी से मिलने का आदी हो चुका हो, उसे अचानक किसी जलधि की राह ढूँढने खुद अकेले आगे बढना पडे तो वह ऐसी बेचैनी से भला कैसे बच पायेगा? उसे अपने भविष्य की चिन्ता नहीं, पर सहोदर-स्नेह से उसका साथ निभानेवाली उस पुरानी राह का हर कंकर उसके वर्तमान में एक भँवर खड़ा कर देता है. 'उनके यहाँ सब कुशल तो होगा?'
कभी कभी तो सपने में मिले हुए अशरीर जीव के प्रति ऐसी ही बेचैनी उमड़ आती है! ऐसे में क्या करना चाहिये ? नानीजी से पूछ आऊँ तो कहेंगी 'सर्वेऽपि सुखिन: सन्तु सर्वे सन्तु निरामय:' पर प्रार्थना करने से मन शान्त होने के बजाय श्रान्त होने लगे तो क्या कीजियेगा?
...क्या सोचते हो? घबराने जैसी कोई बात नहीं! मुझ जैसी सयानी क्या ऐसी झुँझलाहट में फँसी रहेगी? ना बीते हुए कल की याद में, ना आनेवाले कल की चाह में - मैं अपनी राह कतई नहीं छोडूँगी, भले ही मुझे अपनी आवाज़ तुम तक पहुँचाने की आस छोडनी पड़े. कल-कल, छल-छल.. पल-पल गूँजती आवाज़... तुम्हारे यहाँ सब कुशल तो है?
2 Comments:
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे...
-ग़ालिब
Such a nice post ..
I am moved...not by context..but by writing and expression.
Very nice...you have not written for a long time ..it appears the last one was on your marathi blog ..please write more..
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