Tuesday, November 20, 2007

मितवा,पतझड़ शुरू हो गयी यहाँ पर.
कितने सुंदर पत्ते थे मेपल के...लाल, पीले, हरे, बैंगनी. फ़िर धीरे धीरे सारे भूरे बन गयें, और एक दिन सुबह उठकर देखा तो एक-एक पत्ता ज़मीन पर उतरा हुआ!
बड़े पेड़ों की शाखाओं में तो विरक्त जोगी की-सी गम्भीरता दिखाई भी देती है - पर कुछ नन्हें पौधे और अन-बनी उम्र के पेड़ हैं जिनकी शक्ल-ओ-सूरत मुझ से देखी नहीं जाती.
मन करता है उनके सारे पत्तों में गुब्बारों जैसी डोरियाँ लगाकर हर पौधे पे लटका दूँ! कितने प्यारे लगेंगे ना हवा में लहराते हुए...


मुझे भी एक ड़ोर चाहिये..यादों के कईं सुनहरे पत्ते खो चुकी हूँ आज तक!