Wednesday, May 05, 2010

मितवा, कभी तुमने मुझसे पूछा था के तुम मेरे लिए क्या हो। अरसों से सुनी हुईं कविताएँ याद आईं थी। कुछ चुनिंदे अशआर। गुलज़ार की कुछ नज़्में। और तो और, नाना पाटेकर की आवाज़ में "कैसे बताऊँ तुम्हें तुम मेरे लिए क्या हो.." भी ! इनमें से कुछ न सुनाया तुम्हें। सब तो तुम पहले से जानती थी। कुछ चीज़ें तो तुम्हीं ने सुनाईं थी मुझे।


सुंदर लिखावट जैसे सुंदर लेखन का प्रमाण नहीं होती, वैसे ही अच्छी याददाश्त अच्छी यादों का प्रमाण नहीं होती। किसी और के शब्द याद दिलाकर, या खुद अपने शब्द उनके दिए हुए पैटर्न में बुनकर मैं किसे बुद्धू बनाने जाती? जिसकी बुद्धि बिजली-सी चमककर कईं बार मेरी अनजान राहें उजागर कर देती है उसे? उतनी भी नासमझ नहीं हूँ नं मैं! बुरा बस इसी बात का लगता था के अनकहीं बातें अनकहीं रहने देने की रोमांचकता संदेह से हाथ मिलाए रहती है।



आज कुछ सोच रही थी तो पता नहीं क्यूँ, ऐसे लगा : If I conceive a child and later encounter some major financial calamity, you would be the only person I would come to ask for help towards its education.



कल्पना की बचकानी बारीकियों पे हँस रही हो?

जितना मुझे जानती हो - शायद समझ जाओगी के तुम मेरे लिए क्या हो।