Thursday, October 26, 2006

सूने दिल में आ जाती है याद तुम्हारी
अँधेरी रात में ईद का चाँद आए जैसे

...चाँद की धूम है आज, रात की नहीं.

Sunday, October 08, 2006

कहने को लफ़्ज़ तो बहुत थे तुम्हारे पास
और उन्हें उडाते भी थे तुम फ़ाकामस्ती में
साबुन के बुलबुलों की तरह!
मैं तो बेज़ुबां देखती रह जाती
उनके रंग, उनकी चमक, उनकी उडान
सात साल की बच्ची की तरह!
मिट्टिया रंग की मेरी आंखों में
उतर आते थे वहीं रंग, वही चमक, वही उडान
मैं अपने आप को सुंदर समझने लगती!

यह समझ भी काफ़ी बुरी चीज़ है...
एक बार चली आती है तो फ़िर आती ही चली जाती है!

समझ ने मजबूर किया तो चाहने लगी -
बुलबुलों को और अच्छे से समझ लूं
उन्हें अपने पास सजा के रखूं.. हमेशा के लिए.

फ़िर क्या हुआ?
तुम तो समझदार हो.
लफ़्ज़ों के खोंखले बुलबुले उड़ाना तुमसे छोड़ा न जाता...
तुमनें मुझे छोड़ दिया!

A dash at 'triveNi'

Gulzar introduced a new form of short poetry: triveni. Been reading the collection of his trivenis ..obviously the next scribble that would come outta my keyboard _would_ be a triveni. gosh, i'm such a copycat! :D

पैतृक भाव से मेरा मस्तक चूम कर रात के अंधेरे में चला गया वो
और वापस आकर मैं नहाती रही, घिस घिस कर माथा अपना!

कबीर कहता था, दिल पे लगा दाग साबुन से नहीं मिटता.

*

मेरे आंखों से ओझल होनेवाले सपने की कसम है तुझे
... फिर मुझे सताने कभी ना आइयो!

सपना ही तो है, मर भी गया तो क्या डर है?