Monday, June 08, 2009

मितवा,

आज से पहले तुम्हारी तीन तरह की आवाज़ें सुनी थीं।

पहली (जो मुझे सब से ज़्यादा पसंद है) - पाँच साल के बच्चे का खिलखिलाता उत्तेजित स्वर लेकर आती थी। लगता था सीधे तुम्हारे पेट से निकलकर ऊपर उठती आ रही है - मणिकरण का फौवारा! कभी तुम्हें मेरी याद आ रही हो, और तभी अचानक से मैंने फोन कर दिया - तब मेरा नाम एक ख़ास आवाज़ में लिया करते थे तुम। उस आवाज़ की आयु कुछ खास लंबी न थी. मेरे नाम से लेकर एक साँस में आनेवाले तुम्हारे अगले शब्दों तक बस: "कैऽऽसी हो रे? पत्ता है, किन्नीऽऽऽ याद आ री थी तेरी!"
फ़िर तुम्हारा वो बचपन मेरे उत्तर में प्रतिबिंबित हो जाता, और उसके जवाब में तुम अपनी बड़प्पन की भूमिका निभाने लग जाते। उस पूरे संभाषण-भर में फ़िर मैं राह देखती रहती..कब हम दोनों की चुप्पी हो जाए एक साथ, और कब तुम्हारी ’अंदरूनी आवाज़’ "और बताऽऽओ.." बोलती हुई बाहर निकल पडे।

दूसरी (जिससे मैं सब से ज़्यादा अचम्भित हूँ) तुम्हारी बाहरी आवाज़। रोज़मर्रे की। बड़प्पनवाली। यह तुम्हारे पूरे कंठ से निकलती थी (कुछ ग़ुस्सा होते या ज़्यादा खुश होते तब शायद फेपड़ों तले से निकल आती थी)। इस आवाज़ के ना जाने कितनें दीवानें! याद है, तुम्हारे प्रेजेन्टैशन के बाद उन जर्मन प्रोफ़ेसरसाहब नें कितनीं मिन्नतें की थीं तुम्हें अपनी इन्स्टिट्यूट में लेकर जाने के लिये! ’वाट अ ब्यूटिफ़ुल वॉइस..वाट ब्यूटिफ़ुल डिक्शन!’ - कम से कम छह बार तो बोले होंगे पूरे पाँच मिनटों में। सच कहूँ तो सहमती थी तुम्हारी इस आवाज़ से मैं कभी कॅंवार। ’मैं तुम्हारे चरणों तले की धूल’ वाली भावना जागृत जो हो उठती थी! पर फ़िर मेरा कान पकड़कर उसी आवाज़ में तुमनें क्या कुछ न समझाया...उस आवाज़ की जादू तो देखो - सब इन्फ़ीरियोरिटी काम्प्लेक्स दूर हो गया!

तीसरी (जिसका मैं सब से ज़्यादा सम्मान करती हूँ) तुम्हारी ऊपरी आवाज़ । यह लगती थी जैसे तुम्हारे मेरुदंड से उठकर माथे तक जाकर कंठ के ऊपरी हिस्से से बाहर निकल रही है। इस आवाज़ में बोलते थे तब तुम इस दुनिया के सामान्य इन्सान लगते ही नहीं थे। बातें तो वहीं होती थी.. हर रोज़ की तरह। पर लगता था तुम मुझसे नहीं, अपने आप से बातें कर रहे हो। गहन, गहरी बातें - जो मैं समझने न पाती। लगता था बहुत खलबली मची है तुम्हारे अन्दर..दिखता था के अभिमन्यू की तरह जूँझ रहे हो तुम जिस भी चक्रव्यूह से घिरे हो - और सब के बीच रहकर भी अपने अन्दर यह लड़ाई जारी रखनेवाले तुमपर मुझे बड़ा प्यार आता।

पर आज, मितवा...
कुछ अच्छा नहीं लगा आज तुम्हारी आवाज़ सुनकर।
सच कहूँ तो बड़ा ही खराब लगा।
उस नासपीटी आवाज को तुम्हारी आवाज कहने का मन ही नहीं कर रहा।
कितनी खोंखली थी वह आवाज़! पूरा जीवनरस सूखकर नष्ट हुए फल के अंदर बीज मानो खड़-खड़ बज रहें हो।
उस आवाज़ में मुझे ’मधुशाला’ भी सुनाते तो लगता : हाला कबकी खत्म हुई, और पीनेवालों का ही नहीं , साक़ी का कण्ठ भी सूख चुका है।
न जानें कितनी अशुभ प्रतिमाएँ मन में जाग उठी। कभी लगे तुम्हें कुरेद कुरेदकर खा डाला है इस आवाज़ ने, और अब ब्रह्मराक्षस बन कर तुम्हारा रूप धारण कर आ बैठी है तुम्हारे ही गले में। कभी लगे कीटाणुओंकी तरह तुम्हें जक़ड लिया है इसने और तुम्हारा गला दबोचे जा रही है, इतनी तेज़ की तुम्हारी अपनी आवाज़ तुम्हारे हृदय से बाहर आने ही न पाएँ।

मितवा, आज तक तुम्हारी कोई पीड़ा सुनकर इतनी चिंतित नहीं हुई थी जितनी अब, जब इस आवाज़ में तुमनें कहा - ’सच कहता हूँ, मैं खुश हूँ’।

झूठ जब समझदारी का नक़ाब पहने सामने आता है, बहुत असुंदर लगता है।

फ़िर से अपने आप में वापस समा जाओ, मेरे मीत...नासमझ ही सही - पर सच्चे बने रहो!