कहने को लफ़्ज़ तो बहुत थे तुम्हारे पास
और उन्हें उडाते भी थे तुम फ़ाकामस्ती में
साबुन के बुलबुलों की तरह!
मैं तो बेज़ुबां देखती रह जाती
उनके रंग, उनकी चमक, उनकी उडान
सात साल की बच्ची की तरह!
मिट्टिया रंग की मेरी आंखों में
उतर आते थे वहीं रंग, वही चमक, वही उडान
मैं अपने आप को सुंदर समझने लगती!
यह समझ भी काफ़ी बुरी चीज़ है...
एक बार चली आती है तो फ़िर आती ही चली जाती है!
समझ ने मजबूर किया तो चाहने लगी -
बुलबुलों को और अच्छे से समझ लूं
उन्हें अपने पास सजा के रखूं.. हमेशा के लिए.
फ़िर क्या हुआ?
तुम तो समझदार हो.
लफ़्ज़ों के खोंखले बुलबुले उड़ाना तुमसे छोड़ा न जाता...
तुमनें मुझे छोड़ दिया!